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हर साल सरकारी रिपोर्ट्स में हजारों, लाखों पेड़ लगाने के दावे किए जाते हैं। मीडिया में चमकती तस्वीरें, नेताओं और अधिकारियों की पौधा लगाते हुए झलकियां – सब कुछ बहुत हरा-भरा लगता है। लेकिन ज़मीन पर जाकर देखें तो असलियत कुछ और ही होती है।
हकीकत यह है कि कई जगह पौधे लगने के कुछ ही महीनों में सूख जाते हैं, मर जाते हैं और मैदान फिर से वैसे ही खाली हो जाते हैं जैसे पहले थे।
कारण साफ़ हैं:
पानी की कमी
देखभाल का अभाव
जानवरों से सुरक्षा न होना
लगाकर छोड़ देना, जैसे काम पूरा हो गया
कई बार सरकारी आंकड़ों में दावा होता है कि “हमने इस साल 1 लाख पेड़ लगाए”। लेकिन क्या कभी ये रिपोर्ट्स यह बताती हैं कि उन पौधों में से कितने अब भी ज़िंदा हैं?
दुर्भाग्य से, असली गणना पौधे बचाने पर नहीं, लगाने पर होती है।
जनता में भ्रम कि पेड़ बहुत लगाए जा रहे हैं
सरकारी धन और समय की बर्बादी
पर्यावरण को असली फायदा नहीं
देखभाल का प्लान – कम से कम 2-3 साल पौधे की निगरानी और पानी की व्यवस्था हो।
स्थानीय जिम्मेदारी – जिस इलाके में पौधे लगें, वहां के लोग या संस्थाएं उन्हें अपनाएं।
सुरक्षा घेरा – पौधे को जानवरों और इंसानों से बचाने के लिए बाड़ लगाई जाए।
सत्यापन – साल के अंत में रिपोर्ट में सिर्फ लगे हुए पौधों का नहीं, बल्कि बचे हुए पेड़ों का आंकड़ा हो।
पेड़ लगाना एक इवेंट नहीं, एक ज़िम्मेदारी है। अगर हम सिर्फ फोटो खिंचवाकर पौधारोपण को पूरा मान लेंगे, तो आने वाले सालों में धरती और भी बंजर होती जाएगी।
असल में, हरा-भरा जंगल कागज़ पर नहीं, ज़मीन पर होना चाहिए।